कोलकाता: पश्चिम बंगाल के बहुचर्चित शिक्षक भर्ती घोटाले में पूर्व शिक्षा मंत्री पार्थ चटर्जी को सुप्रीम कोर्ट ने जमानत पर रिहा करने का आदेश दिया है। अदालत ने कहा कि चटर्जी को 1 फरवरी, 2025 तक या उससे पहले रिहा किया जाए। इसके साथ ही ट्रायल कोर्ट को 31 दिसंबर, 2024 तक आरोप तय करने और कमजोर गवाहों के बयान दर्ज करने का निर्देश दिया गया है। इस फैसले ने न्याय व्यवस्था और भ्रष्टाचार के प्रति उसकी गंभीरता पर तीखे सवाल खड़े कर दिए हैं।
लंबी हिरासत के खिलाफ कोर्ट का रुख
जस्टिस सूर्यकांत की अध्यक्षता वाली पीठ ने अपने आदेश में कहा कि विचाराधीन कैदियों को लंबे समय तक हिरासत में रखना उचित नहीं है। लेकिन यह निर्णय जनता के बीच बड़ा विवाद खड़ा कर रहा है, खासकर जब मामला करोड़ों रुपये की नकदी और सार्वजनिक पद के दुरुपयोग का हो। अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि रिहाई के बाद चटर्जी को किसी भी सार्वजनिक पद पर नियुक्ति की अनुमति नहीं होगी।
क्या भ्रष्टाचारियों को राहत मिलना उचित है?
यह सवाल समाज और मीडिया में गूंज रहा है। चटर्जी पर आरोप है कि उन्होंने पैसे लेकर अयोग्य उम्मीदवारों को शिक्षक के पद पर नियुक्त किया। जांच के दौरान उनकी करीबी सहयोगी अर्पिता मुखर्जी के फ्लैट से करीब 50 करोड़ रुपये नकद और भारी मात्रा में सोना बरामद हुआ था। हाई कोर्ट ने मामले को गंभीर मानते हुए 25,000 से अधिक नियुक्तियों को रद्द कर दिया था।
राजनीतिक प्रतिक्रिया और टीएमसी का रुख
घोटाले के उजागर होने के बाद ममता बनर्जी सरकार ने चटर्जी को मंत्री पद से हटा दिया था और टीएमसी ने उन्हें पार्टी से निष्कासित कर दिया। लेकिन अब, जमानत पर उनकी रिहाई पार्टी और सरकार के लिए नई मुश्किलें खड़ी कर सकती है। जनता का सवाल है कि इतने गंभीर आरोपों और सबूतों के बावजूद क्या यह सही है कि चटर्जी को राहत दी गई?
न्याय व्यवस्था पर गंभीर सवाल
इस मामले ने भारतीय न्याय व्यवस्था की निष्पक्षता और भ्रष्टाचारियों पर कार्रवाई की गंभीरता को कटघरे में खड़ा कर दिया है। एक तरफ गरीब और कमजोर वर्ग के लोग मामूली अपराध के लिए वर्षों जेल में सड़ते हैं, वहीं सत्ता और पैसे के प्रभाव वाले लोग जल्द ही राहत पा लेते हैं।
भ्रष्टाचार के खिलाफ कानून की कमजोरियां
भारत में भ्रष्टाचार के मामलों में दोषियों को सजा मिलना दुर्लभ है। कई नेता स्वास्थ्य कारणों का हवाला देकर जमानत ले लेते हैं और फिर सक्रिय राजनीति में लौट आते हैं। पार्थ चटर्जी का मामला भी इस प्रवृत्ति का एक और उदाहरण हो सकता है।
जनता की जिम्मेदारी और सुधार की आवश्यकता
यह घटना यह सोचने पर मजबूर करती है कि जब तक कानून में सख्ती नहीं लाई जाती और भ्रष्ट नेताओं को सार्वजनिक जीवन से दूर रखने के उपाय नहीं किए जाते, तब तक बदलाव संभव नहीं है। जनता को भी सजग होकर अपने नेताओं की जवाबदेही तय करनी होगी।